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आ꣡दह꣢꣯ स्व꣣धा꣢꣫मनु꣣ पु꣡न꣢र्गर्भ꣣त्व꣡मे꣢रि꣣रे꣢ । द꣡धा꣢ना꣣ ना꣡म꣢ य꣣ज्ञि꣡य꣢म् ॥८५१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे । दधाना नाम यज्ञियम् ॥८५१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢त् । अ꣡ह꣢꣯ । स्व꣣धा꣢म् । स्व꣣ । धा꣢म् । अ꣡नु꣢꣯ । पु꣡नः꣢꣯ । ग꣣र्भत्व꣢म् । ए꣣रिरे꣢ । आ꣣ । इरिरे꣢ । द꣡धा꣢꣯नाः । ना꣡म꣢꣯ । य꣣ज्ञि꣡य꣢म् ॥८५१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 851 | (कौथोम) 2 » 2 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 4 » 2 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जीवात्मा के पुनर्जन्म का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आत् अह) देहत्याग के अनन्तर सूक्ष्म शरीर में समाविष्ट ये प्राण पूर्वजन्मकृत कर्मों के संस्कारों के अनुसार (स्वधाम् अनु) भोग को लक्ष्य करके, जीवात्मासहित (यज्ञियम्) देहयज्ञ के सञ्चालन-योग्य (नाम) कर्म को (दधानाः) धारण करते हुए (पुनः) पूर्वजन्म के समान फिर भी (गर्भत्वम्) माता के गर्भ में स्थिति को (एरिरे) प्राप्त करते हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -

पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्मभूत, मन और बुद्धि यह सत्रह लिङ्गोंवाला सूक्ष्मशरीर जीवात्मा के साथ मृत्यु के बाद भी रहता है। पूर्वजन्म के कर्मों के संस्कारानुसार फल भोगने के लिए सूक्ष्मशरीर के साथ जीवात्मा पुनर्जन्म ग्रहण करने के लिए माता के गर्भ में प्रवेश करता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जीवात्मनः पुनर्जन्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आत् अह) देहत्यागानन्तरं खलु, सूक्ष्मशरीरसमाविष्टा एते मरुतः प्राणाः पूर्वजन्मकृतकर्मसंस्कारानुसारम् (स्वधाम् अनु) भोगम् अनुलक्ष्य, इन्द्रेण जीवात्मना सहचारिताः (यज्ञियम्) देहयज्ञसंचालनार्हम्। [यज्ञमर्हति इति यज्ञियः, ‘यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ। अ० ५।१।७१’ इति घः प्रत्ययः।] (नाम) कर्म (दधानाः) धारयन्तः (पुनः) पुर्वजन्मवत् भूयोऽपि (गर्भत्वम्) मातुर्गर्भे स्थितिम् (एरिरे) प्राप्नुवन्ति। [आङ्पूर्वः ईर गतौ कम्पने च अदादिः, लिटि रूपम्] ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

पञ्च प्राणाः, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च सूक्ष्मभूतानि, मनो बुद्धिश्चेति सप्तदशलिङ्गकं सूक्ष्मशरीरं जीवात्मना सह मृत्योरनन्तरमपि तिष्ठति। पूर्वजन्मकर्मसंस्कारानुसारेण फलानि भोक्तुं सूक्ष्मशरीरेण सह जीवात्मा पुनर्जन्म ग्रहीतुं मातुर्गर्भं प्रविशति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।६।४, अथ–० २०।४०।३, ६९।१२ सर्वत्र देवताः मरुतः।